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वि त्वा॑ ततस्रे मिथु॒ना अ॑व॒स्यवो॑ व्र॒जस्य॑ सा॒ता गव्य॑स्य नि॒:सृज॒: सक्ष॑न्त इन्द्र नि॒:सृज॑:। यद्ग॒व्यन्ता॒ द्वा जना॒ स्व१॒॑र्यन्ता॑ स॒मूह॑सि। आ॒विष्करि॑क्र॒द्वृष॑णं सचा॒भुवं॒ वज्र॑मिन्द्र सचा॒भुव॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi tvā tatasre mithunā avasyavo vrajasya sātā gavyasya niḥsṛjaḥ sakṣanta indra niḥsṛjaḥ | yad gavyantā dvā janā svar yantā samūhasi | āviṣ karikrad vṛṣaṇaṁ sacābhuvaṁ vajram indra sacābhuvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि। त्वा॒। त॒त॒स्रे॒। मि॒थु॒नाः। अ॒व॒स्यवः॑। व्र॒जस्य॑। सा॒ता। गव्य॑स्य। निः॒ऽसृजः॑। सक्ष॑न्तः। इ॒न्द्र॒। निः॒ऽसृजः॑। यत्। ग॒व्यन्ता॑। द्वा। जना॑। स्वः॑। यन्ता॑। स॒म्ऽऊह॑सि। आ॒विः। करि॑क्रत्। वृष॑णम्। स॒चा॒ऽभुवम्। वज्र॑म्। इ॒न्द्र॒। स॒चा॒ऽभुव॑म् ॥ १.१३१.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:131» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:20» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर सबको किसकी उपासना करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परमेश्वर्य्य के देनेहारे जगदीश्वर ! (सक्षन्तः) सहते हुए (निःसृजः) निरन्तर अनेकानेक व्यवहारों को उत्पन्न करने (अवस्यवः) और अपनी रक्षा चाहनेवाले (निःसृजः) अतीव सम्पन्न (मिथुना) स्त्री और पुरुष दो दो जने (त्वा) आपको प्राप्त होके (व्रजस्य) जाने योग्य (गव्यस्य) गौओं के लिये हित करनेवाले अर्थात् जिसमें आराम पाने को गौएँ जातीं उस गोड़ा आदि स्थान के (साता) सेवन में जैसे दुःख छुटें वैसे दुःखों को (विततस्रे) छोड़ते हैं। हे (इन्द्र) दुःखों का विनाश करनेवाले (यत्) जो (गव्यन्ता) गौओं के समान आचरण करते (द्वा) दो (स्वः) सुखस्वरूप आपको (यन्ता) प्राप्त होते हुए (जना) स्त्री-पुरुषों को (आविष्करिकत्) प्रकट करते हुए आप (समूहसि) उनको अच्छे प्रकार चेतना देते हो, उन (सचाभुवम्) समवाय सम्बन्ध में प्रसिद्ध होते हुए (वज्रम्) दुष्टों को वज्र के समान दण्ड देने (वृषणम्) सबको सींचने (सचाभुवम्) और सत्य की भावना करानेवाले आपकी वे दोनों नित्य उपासना करें ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष और स्त्री सब जगत् को प्रकाशित करने, उत्पन्न करने, धारण करने और देनेवाले सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर ही का सेवन करते हैं, वे निरन्तर सुखी होते हैं ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सर्वैः क उपासनीय इत्याह ।

अन्वय:

हे इन्द्र सक्षन्तो निःसृजोवस्यवो निःसृजो मिथुना त्वा प्राप्य व्रजस्य गव्यस्य सातेव दुःखानि विततस्रे। हे इन्द्र यद्यौ गव्यन्ता द्वा स्वर्यन्ता जना आविष्करिक्रत्सँस्त्वं समूहसि तं सचाभुवं वज्रं वृषणं सचाभुवं त्वा तौ नित्यमुपासेताम् ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वि) (त्वा) त्वां जगदीश्वरम् (ततस्रे) तस्यन्ति दुःखान्युपक्षयन्ति (मिथुना) मिथुनानि स्त्रीपुरुषाख्यद्वन्द्वानि (अवस्यवः) आत्मनोऽवमिच्छवः (व्रजस्य) व्रजितुं गन्तुं योग्यस्य (साता) सम्यक् सेवने (गव्यस्य) गोभ्यो हितस्य (निःसृजः) नितरां सृजन्तः निष्पादयन्तः (सक्षन्तः) सहन्तः। अत्र सह धातोः पृषोदरादिवत्सकारागमः। (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (निःसृजः) नितरां संपन्नाः (यत्) यौ (गव्यन्ता) गौरिवाचरन्तौ (द्वा) द्वौ (जना) जनौ (स्वः) सुखस्वरूपम् (यन्ता) यन्तौ प्राप्नुवन्तौ (समूहसि) सम्यक् चेतयसि (आविः) प्राकट्ये (करिक्रत्) भृशं कुर्वन् (वृषणम्) सेचकन् (सचाभुवम्) यः समवाये भवति तम् (वज्रम्) दुष्टानां वज्रमिव दण्डप्रदम् (इन्द्र) दुःखविदारक (सचाभुवम्) सत्यं भावुकम् ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये पुरुषाः स्त्रियश्च सर्वस्य जगतः प्रकाशकं कर्त्तारं धर्त्तारं दातारं सर्वान्तर्यामिजगदीश्वरमेव सेवन्ते ते सततं सुखिनो भवन्ति ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे स्त्री-पुरुष सर्व जगाला प्रकाशित करणारा, उत्पन्न करणारा, धारण करणारा व देणारा अशा सर्वान्तर्यामी परमेश्वराचा अंगीकार करतात ते सदैव सुखी होतात. ॥ ३ ॥